धर्मग्रंथों ग्रंथों में क्यों कहा गया है कि दो शब्दों से काम चल जाये तो पूरा वाक्य नहीं बोलना चाहिए ?

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‘व्यक्ति को सत्य बोलना चाहिए और साथ ही प्रिय भी बोलना चाहिए. अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए. इसी के साथ प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए.’ ऐसा उद्घोष सनातन संस्कृति में भारतीय ऋषियों तथा मुनियों द्वारा किया गया है. ऋषियों का यह कथन वर्तमान दौर में तो और सार्थक हो गया है. आधुनिक मैनेजमेंट के तहत तो बोलने के तौर-तरीकों की शिक्षा ही दी जाने लगी है, इसीलिए मनीषियों ने कम-से-कम बोलने का संदेश दिया. धर्मग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि अगर एक पूरे वाक्य की जगह दो शब्दों से काम चल जाये तो पूरा वाक्य नहीं बोलना चाहिए. इसी तरह एक शब्द से ही बात पूरी हो जाये, तो दो शब्द नहीं बोलना चाहिए.

ग्रंथों में कहा गया है कि अक्षर पुत्र के समान होते हैं. एक अक्षर बचा लिया तो एक पुत्र की रक्षा हो गयी, जो कभी काम आयेगा. जब व्यक्ति कम बोलता है तो इससे तन और मन की ऊर्जा संरक्षित रहती है. मनन की क्षमता बढ़ती है. इसीलिए बोलने के पहले उस पर खूब मनन करने की सलाह दी गयी है. ऐसा करने वाले के शब्दों में वाणी की देवी मां सरस्वती इतनी शक्ति देती हैं कि वह जब भी कुछ बोलता है, तो उसका प्रभाव अधिक पड़ता है. बिना सोचे-समझे बोलने के दुष्परिणाम होते हैं.

आधुनिक यांत्रिक-दौर में तो अनेक ऐसे यंत्र विकसित हो गये हैं कि किसी के द्वारा कही गयी बातें रिकार्ड (संग्रहित) कर ली जा रही हैं. उतावले में कोई बात कह दी जा रही है और उसे रिकार्ड कर लिया गया तो फिर कही गयी बातें संकट का कारण बन जा रही हैं. संचार माध्यमों में उसका प्रसारण तक होने लगता है, फिर वही बात वापस नहीं हो पाती और कानूनी सजा तक मिल जा रही है. इसी बात को हमारे ऋषियों ने पहले ही जान लिया था. भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीमद्भगवत गीता के 17वें अध्याय के 15वें श्लोक में वाणी के तप की शिक्षा दी है, जिसमें उद्वेग न पैदा करने वाली बात करने की. उन्होंने अर्जुन को सलाह दी है.

उन्होंने भी प्रिय, हितकारक और सत्यभाषण पर बल दिया है. बदलते दौर में वाणी के तप की सार्थकता बढ़ गयी है. जो इसका पालन करता है, वह संकट में नहीं पड़ता है, वरना रिकार्ड की गयी बातें, फोन पर कही गयी बातें और छुपे हुए कैमरे में की गयी बातें साक्ष्य बन जाती हैं और उससे मुकरना संभव नहीं हो पाता है.

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