बिरहाना रोड पर खूब बेची दवाइयां, लेकिन मेरे मर्ज का इलाज मुझे मुंबई में ही मिला

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हाल ही में सोनी लिव पर एक वेब सीरीज ‘फाड़ू’ रिलीज हुई तो कानपुर के गली मोहल्ले कई दिन तक इसमें काम करने वाले कद्दावर कलाकार राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’ को जानने वालों की बतकही से गुलजार रहे। राकेश को कानपुर के लोग ‘केसरी’, ‘पैडमैन’ और ‘मी रक्सम’ के लिए भी जानते हैं। आखिर जानेंगे भी कैसे नहीं, बिरहाना रोड के एक मेडिकल स्टोर पर दवाइयां बेचते बेचते उन्हीं के बीच का एक लड़का मुंबई पहुंचकर हीरो जो बन गया। जी हां, ‘हाशिये के सुपरस्टार’ श्रृंखला की आज की कड़ी मे बात कानपुर के हीरो राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’ की। रंगमंच के मंजे हुए कलाकार राकेश बतौर निर्देशक दो फिल्में भी बना चुके हैं और इन दिनों नाटक, सिनेमा और वेब सीरीज के बीच संतुलन साधने की गजब महारत दिखा रहे हैं। कानपुर से निकले राकेश ने कैसे मुंबई में पाया अपने सपनों का आसमान और इस नीली छतरी के नीचे ठिकाना जमाने से पहले कैसा रहा उनका सफर, अपनी यादों के सहारे खुद बताने की कोशिश कर रहे हैं कानपुर के हीरो, राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’…



मुंबई से पहली मोहब्बत

ये बात उन दिनों की है जब जमाना ‘कबूतर जा जा जा’ गाकर अपनी मोहब्बत का इजहार करने में लगा था और मुझे भी ये लगने लगा था कि हो न हो मेरी पहली मोहब्बत भी सिनेमा ही है। बस एक दिन टिकट कटाकर निकल पड़ा।1991 में पहली बार बंबई (अब मुंबई) बारिश के महीने में ये सोचकर पहुंचा था कि बारिश का महीना है। रोमांस की बातें होती होंगी फिल्मों के दफ्तरों में। सब अपने अपने ठीहे पर ही मिलते होंगे। भांडुप में मेरे एक मामा रहते थे। उनके यहां मेहमान बना। फिल्म इंडिया डायरेक्ट्री ख़रीदी और निर्माताओं के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगा, मुंबई की बारिश, लोकल ट्रेनों की धक्का-मुक्की, स्टूडियो और दफ्तरों की राह में चप्पल घिसाई। मेरे संघर्ष के शानदार सौ दिन भी पूरे न हो पाए और मैं वापस कानपुर लौट गया।


बंबई रिटर्न का ठप्पा

कानपुर में मेरा अब नया परिचय होता था, इनते मिलौ, ई बंबई रिटर्न हैं। मन मारकर पापा के साथ मेडिकल स्टोर पर दवाइयां बेच रहा था। साथ में पढ़ाई भी जारी थी। लेकिन, दिल अब भी अभिनय में ही लगा था। दिल को अभिनय का रोग लग चुका था। फिर दुकान पर एक दिन देवदूत की तरह आए हमारे एक जानने वाले गुप्ताजी। उनसे बात हुई तो वह बोले एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) जाओ। सब बड़े बड़े कलाकार वहीं के निकले हैं। नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर के नाम भी गिनाए। बस, मुझे अंधेरे में रोशनी की एक लकीर दिख गई। लेकिन एनएसडी में प्रवेश की शर्त है स्नातक होना और कम से कम 10 नाटकों का अनुभव। कानपुर में ‘दर्पण’ नाट्य संस्था तक पहुंचने के लिए बड़े भाई रवि के दोस्त अनूप शुक्ला ने अभिनेता संतोष मिश्रा से जुगाड़ लगाया और मेरी मुलाकात हो गई ‘दर्पण’ के संयोजक डा. अतुल्य सत्यमूर्ति से। रंगमंच का पानी लगा तो मैं फिर से खुद को तीसमार खां समझने लगा और पांच साल बाद फिर आ गया मुंबई यानी साल 1996 में लेकिन मामला इस बार भी जमा नहीं और मैं फिर वापस कानपुर जाकर नाटक करने लगा।

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त्रिपुरारी शर्मा ने दिया गुरुमंत्र

मेरी दूसरी मुंबई यात्रा ने मुझे ये तो समझा दिया कि नाटकों में अच्छा काम करने वालों को सिनेमा में भी अच्छा काम मिल जाता है। ‘बैंडिट क्वीन’ ने दिल्ली के रंगमंच कलाकारों के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए थे। और, इसी दौरान ‘दर्पण’ में काम करते करते मुझे एनएसडी की अध्यापिका त्रिपुरारी शर्मा के साथ काम करने का अवसर मिल गया। मुझे समझ आने लगा था कि मेरा अति आत्मविश्वास ही मुझे नुकसान पहुंचा रहा है। अब तक मैं दो बार एनएसडी में प्रवेश के लिए कोशिश कर चुका था और फेल हो चुका था। लेकिन तीसरी बार 1997 में मैंने अपनी गलतियों से सबक लिए। सहज और सरल बनकर सारी परीक्षाएं दीं और मैदान मार लिया। अब मैं अपने मंदिर पहुंच चुका था, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय। यहीं पहली बार दिग्गज अभिनेता और मेरे आदर्श रहे नसीरूद्दीन शाह से सामना हुआ।


फेल होना बुरी बात नहीं!

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय यानी एनएसडी ने मुझे चुनौतियों से जूझने का नया हौसला दिया। नसीरुद्दीन शाह यहां साल में एक बार तीसरे वर्ष के छात्रों के साथ वर्कशॉप करने आते हैं। नसीर सर जब हमारे बैच के साथ वर्कशॉप करने आए तो उनकी क्लास के दौरान मैं हर कोशिश में फेल हुआ। फिर भी हर बार कोशिश करता रहा। नाटक ‘रोमियो एंड जूलिएट इन टेक्निकलर’ की वर्कशॉप भी की जिसमें आदिल हुसैन भी शामिल थे और रॉयस्टन एबल उसके निर्देशक थे। नसीर साहब जिस दिन बंबई वापस जा रहे थे तो अचानक अपने होटल से एनएसडी आ गए और हमारे बैच के लोगों के साथ चाय की दुकान पर बैठ गए। मुझे पता चला तो हॉस्टल से मैं भी भागा। तब तक 15 मिनट हो चुके थे। मुझे अच्छे से याद है कि मैं कुछ नहीं बोला उस पूरी मीटिंग के दौरान। जब नसीर सर चले गए तो बाद में मुझे रॉयस्टन एबल ने कहा, ’’सर, तेरे बारे में बात कर रहे थे।’’ मैंने पूछा, क्या? तो रॉयस्टन ने कहा, ’’किसी ने पूछा था कि अभिनय में मैं अपनी सीमाओं को नहीं तोड़ पा रहा हूं। अंदर से अक्सर कोई चीज जकड़ लेती है तो सर ने कहा कि फेल होने से मत डरो, राकेश को देखो, कितना फेल होता है, पर मानता नहीं है, हर बार कोई न कोई नई कोशिश करने आ जाता है। इसलिए फेल एंड फेल बेटर।’’


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