सेना में अब नहीं दिखेंगी ब्रिटिश काल की परंपराएं, ‘भारतीयकरण’ के लिए शुरू हुई समीक्षा

[ad_1]

इस पर सेना मुख्यालय और रक्षा विभाग के आला अधिकारियों के साथ बैठक भी हो रही है. पुराने नियमों और नीतियों की समीक्षा हो रही है. ब्रिटिश काल के नाम और तरीक़े भी बदलेंगे. यूनिट और रेजिमेंट के नाम भी बदल सकते हैं. सेना की वर्दी और कंधे पर लगने वाले सितारों की भी समीक्षा होगी. अंतिम संस्कार में तोप बग्घी के इस्तेमाल पर भी विचार होगा.

सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल अशोक कुमार कहते हैं कि मौजूदा समय में भारतीय सेना में जो बदलाव की बयार चल रही है, मूलत: मैं उसका स्वागत करता हूं. जरूरी यह नहीं है कि बदलाव हो या ना हो, जरूरी ये है कि उस बदलाव से हम क्या हासिल करना चाहते हैं और क्या पीछे छोड़ना चाहते हैं. हमारी भारतीय सेना में ढेर सारी ऐसी परंपराए हैं, जिनका हमारे प्रदर्शन पर कोई सीधा संबध नहीं है. 

उन्होंने कहा कि ऐसी परंपराओं को जो हमारे भारतीयता को सही मायने में परिलक्षित नहीं करती है और वो हमारी औपनिवेशिक दौर के संबधों को जाहिर करती है. उनको छोड़ने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, जब तक उसका यूनिट के मनोबल, उत्साह से सीधा संबध नहीं हो. अभी जो बातें चल रही हैं उनमें ढेर सारी चीजों का रिलवेंस अब खत्म हो गया है. इन चीजों को पहले ही बदल देना चाहिए था और हम इस प्रक्रिया में काफी लेट चल रहे हैं. हर वह प्रक्रिया जो हमारी क्षमता और हमारी काबीलियत को आगे नहीं बढ़ाती है, उनको छोड़ देना ही उचित है.

दरअसल सेना में आजादी के दौर के पहले के रीति-रिवाज चले आ रहे हैं. मेस में खाने से लेकर बीटिंग रिट्रीट जैसे समारोह तक, लेकिन अब सेना का भारतीयकरण होना है. हालांकि इस बदलाव की अपनी चुनौतियां हैं.

सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल यश मोर के मुताबिक आजकल बहुत बातचीत चल रही है कि ब्रिट्रिश काल के जो सिस्टम और परंपरा है उसको बदलना है. ठीक है, अच्छी बात है बदलाव एक जरुरी चीज है, लेकिन अब यह बातचीत भी मीडिया के अंदर बहुत हो रही है कि खासतौर से फौज के अंदर बहुत बदलाव की जरूरत है. मैं मानता हू कि फौज में रेजिमेंटशन सिस्टम, यूनिफार्म सिस्टम और जिस तरह की रेजिमेंट है इंफ्रैट्री, आर्म्ड जो काफी हद तक वही चलती आ रही है, जो ब्रिट्रिश काल में थी, लेकिन पिछले 20-30 सालों में जो नई रेजिमेंट और यूनिट खड़ी हुई है सबके सब ऑल इंडिया ऑल क्लास है. इंडियन आर्मी पूरी तरह से भारत की फौज है. अपने देश की फौज है.

उन्होंने कहा कि ब्रिट्रिश काल का बहुत कम नामोनिशान बचा है. परंपरा के नाम परप पहले विश्व युद्ध, दूसरे विश्व युद्ध की बातें हैं, जिससे आज के सैनिक बहुत उत्साहित होते हैं, अपने यूनिट का नाम सुनकर कि लड़ाई में क्या काम किया है. यह इतिहास का पार्ट है उसे पढ़ना भी चाहिए और जैसे अपने वशंजों को याद करते हैं वैसे ही करते हैं इसमें कोई बुरी बात नहीं है. बदलाव की जरुरत है मैं मानता हूं लेकिन आर्मी के अंदर कम से कम राजनीतिक या अधिकारिक दखल ना हो तो अच्छा होगा.

रिटायर्ड मेजर जनरल यश मोर ने कहा कि पिछले 75 साल में यह एक संगठन है जो समय की कसौटी पर खरा उतरा है. देश के सामने जब भी विपदा पड़ी है चाहे आतंरिक वजहों से हो या कोई और वजह से आपदा की हो, सेना हमेशा लोगों की मदद में सामने आई है. मेरा अनुरोध है कि सेना की परंपरा के साथ कोई खिलवाड़ ना हो और ना ही रिक्रूमेंट प्रक्रिया के साथ, सब कुछ सेना पर छोड़ दें. बदलाव जो भी हो, बस इतना ध्यान रखने की ज़रूरत है कि सेना की पेशेवर क्षमताओं पर असर न पड़े.

वैसे भी दुनिया भर में भारतीय सेना अपने पेशेवर रवैये के लिए जानी जाती है. यह सम्मान उसने लंबे समय से चली आ रही परंपराओं के बीच ही हासिल किया है. यह अच्छी बात है कि सेना को औपनिवेशिक विरासत से मुक्त किया जाए. लेकिन यह काम बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए.

[ad_2]

Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *