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अमर उजाला देहरादून के 26 वर्ष का जश्न
– फोटो : अमर उजाला
विस्तार
वर्ष 1986 की बात है, जब मेरठ से टैक्सियों पर लदकर उत्तराखंड के पहाड़ों पर अमर उजाला के बंडल आने लगे थे। काली स्याही से छपे उन शब्दों में सच और सरोकार का एक अद्भुत जादू था, जो बहुत जल्द ही हिमालय की घाटी और पहाड़ों पर छाने लगा। अखबार के नए तेवर और आम जनता से जुड़ी खबरों ने देखते ही देखते अमर उजाला को उत्तरांचल (तब उत्तराखंड की पहचान इसी नाम से थी) का सबसे लोकप्रिय अखबार बना दिया।
1991 में उत्तरकाशी में धरती डोली और विनाशकारी भूकंप ने तबाही का एक ऐसा मंजर दिखाया कि पहाड़ों की आत्मा तक कांप उठी। ये अमर उजाला के लिए परीक्षा की घड़ी थी। तब न चमकती सड़कें थीं और न ही आधुनिक पत्रकारीय संसाधन व तकनीक। वह अकेला अमर उजाला ही था, जिसने तमाम दुर्गम चुनौतियों के पर्वत को पार करके उत्तरकाशी की इस त्रासदी की तस्वीरों और पीड़ित जनता के दर्द को शब्दों में बयां कर दुनिया तक पहुंचाया। नतीजन भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए दुनिया भर से हाथ उठे। संकट के इस समय में अमर उजाला को अपने साथ देखकर पहली बार पहाड़ को लगा कि यही एक अखबार है, जो उनके दुख दर्द में साथ खड़ा है।
नब्बे के दशक में ही पौड़ी की सीमा पर स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर में सावन के पहले सोमवार को एक दर्दनाक हादसा हुआ। पहाड़ों से ऐसा मलबा नीचे आया कि सैकड़ों लोग दफन हो गए। तत्कालीन सरकार राहत के पुख्ता इंतजाम नहीं कर पाई। अमर उजाला हमेशा की तरह पीड़ितों के साथ खड़ा रहा और उनकी आवाज बना। सरकार को नींद तोड़नी पड़ी। केंद्र सरकार को हस्तक्षेप के लिए मजबूर होना पड़ा। साक्षी बने पहाड़ ने देखा कि अमर उजाला न रुकता है, न झुकता है। न पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों और राजनेताओं-अफसरशाहों की अराजक मनोवृत्ति से कभी समझौता करता है।
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