संभवतः इसे ही राजनीति कहते हैं। जब भतीजे चिराग पासवान ने भाजपा को तेवर दिखाया और उससे अलग होने की राह अपनाई, भाजपा ने उनके चाचा पशुपति कुमार पारस को लोजपा सांसदों के सहित अपने साथ ले लिया। पूरे पांच साल सरकार चलाई। और अब जब चाचा पारस ने सीटों के बंटवारे पर अपने तेवर दिखाने की कोशिश की, भाजपा ने भतीजे चिराग को साथ ले लिया और उनके साथ चुनाव में जाने की घोषणा कर दी। भाजपा-लोजपा के इस रिश्ते को राजनीतिक मजबूरी का नाम दे सकते हैं।
सोमवार को जब भाजपा महासचिव विनोद तावड़े ने बिहार की सीटों पर एनडीए सहयोगियों के बीच समझौता हो जाने की घोषणा की, पूरे प्रेस कांफ्रेंस में एक बार भी पशुपति कुमार पारस का नाम किसी नेता की जुबान पर नहीं आया। यह इस बात का संकेत था कि भाजपा अब पारस से आगे देखने का मन बना चुकी है।
वहीं, भाजपा की राष्ट्रीय मीडिया सेल के सह-प्रमुख संजय मयूख ने एनडीए सहयोगियों के बीच सीटों पर तालमेल को ‘बिहार फतेह का समीकरण’ बताया। बिहार के राजनीतिक समीकरणों की बारीक समझ रखने वाले भाजपा नेता के इस बयान से साफ था कि पार्टी अपने सहयोगियों के साथ राज्य में एक तरफा जीत हासिल करने की बात सोच रही है।
इससे यह भी साफ है कि उसे पशुपति कुमार पारस से किसी तरह का नुकसान होने की आशंका नहीं है। यानी भाजपा को भरोसा है कि यदि पशुपति कुमार पारस तेजस्वी यादव के साथ जाते भी हैं, तो लोजपा के पारंपरिक मतदाता चिराग के कारण एनडीए के साथ ही बने रहेंगे।
चिराग ही क्यों?
चिराग पासवान ने बिहार में ज्यादा सीटों की मांग को लेकर एनडीए का साथ छोड़ दिया था। लेकिन तब से अब तक उन्होंने कभी भाजपा नेतृत्व या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। वे स्वयं को राम (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) का हनुमान बताते रहे। जब सेवा का यह भाव था, तो उसका इनाम देर-सबेर मिलना ही था। आखिरकार चिराग पासवान एक बार फिर एनडीए के साथ आ गए, तो चिराग के साथ किसी भी तरह समझौता न करने पर अड़े पशुपति कुमार पारस को बाहर जाना पड़ा।
बिहार भाजपा के एक नेता ने अमर उजाला से कहा कि हमारे समाज की कटु सच्चाई यही है कि बेटे को उसके पिता की राजनीति का वारिस माना जाता है। मुलायम सिंह यादव की राजनीति के उत्तराधिकारी अंततः अखिलेश यादव ही बने, कई बड़े नेताओं के होने के बाद भी राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव की राजनीति के उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव ही माने जा रहे हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं था कि यदि लोकसभा चुनाव में चिराग पासवान अलग राह पर जाते और पारस भाजपा के साथ होते तो भी पासवान समुदाय की बड़ी जनता का समर्थन चिराग पासवान के साथ ही होता।
नेता के अनुसार, चिराग पासवान राजनीतिक रूप से लगातार सक्रिय बने हुए हैं। वे बिहार और युवाओं के मुद्दे को लेकर लगातार कार्यक्रम कर रहे हैं, वहीं चाचा ने मंत्री पद संभालने के बाद से कोई बड़ा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं किया है, जो उनके पारंपरिक मतदाताओं को उनके साथ होने को प्रमाणित कर सके। यही कारण है कि एक-एक वोट को साधने की रणनीति पर चल रही भाजपा ने चिराग को अपने साथ रखने की कोशिश की।
किस राह जाएंगे चाचा?
अभी इस बात पर अटकलबाजी चल ही रही है कि पशुपति कुमार पारस किस राह जाएंगे। भाजपा ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती कि वह अपने पुराने सहयोगियों को किसी भी स्तर पर छोड़ सकती है। यही कारण है कि अंतिम समय तक पशुपति कुमार पारस को साधने की कोशिश की गई। लेकिन चिराग के साथ कोई गठजोड़ बनाने से इनकार करने के कारण भाजपा को पारस को अकेला छोड़ना पड़ा। लेकिन भाजपा नेता मानते हैं कि पशुपति कुमार पारस के अलग राह जाने पर भी एनडीए खेमे को वोटों का कोई नुकसान नहीं होगा। हालांकि, पार्टी अभी भी पारस को साधने की कोशिश अवश्य करेगी।