Opposition INDIA : मुंबई में हयात की उम्मीद; नीतीश की ना को हां में बदलना बड़ा टास्क, मगर यह रोड़ा कैसे हटेगा

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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के “ना” का क्या है मतलब
– फोटो : अमर उजाला

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हयात का मतलब होता है- जिंदगी। मुंबई के आलीशान ग्रांड हयात होटल में देशभर के भाजपा-विरोधी दलों की तीसरी बैठक होने वाली है। यह बैठक निर्णायक है। मतलब, यहां भाजपा-विरोधी मुहिम की जिंदगी तय होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की भाजपा सरकार के नौ वर्षों के दरम्यान 23 जून 2023 की तारीख विपक्षी दलों के लिए ऐतिहासिक हो चुकी है। इसी तारीख को देशभर के भाजपा-विरोधी दलों का पहला महाजुटान हुआ था। भाजपा की सोच से उलट यह बैठक कराने में सफल रहे थे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। पटना में 23 जून को हुई बैठक के बाद बेंगलुरु होते हुए अब मुंबई में बैठक है। गुरुवार की शाम नीतीश भी मुंबई पहुंच चुके हैं। नीतीश ने मुंबई रवाना होने से एक-दो दिन पहले तक कहा कि उन्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। लेकिन, क्या यह पूरा सच है? नीतीश को छोड़ दें तो भी क्या राजनीति में कोई बगैर कुछ चाहत के कुछ करता है। महत्वाकांक्षा, आकांक्षा, उम्मीद… कुछ तो जरूर है। फिर क्यों नीतीश ‘ना’ कह रहे? क्या इसे हां में बदलना बड़ा टास्क नहीं और अगर है तो रोड़ा कहां है?

हां-ना की बिसात 12 जून की तारीख से बिछी

12 जून 2023 की तारीख बाकी लोग भूल जाएं, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह तारीख अहम थी और वह इसे नहीं भूलेंगे। भाजपा-विरोधी ताकतों को जुटाने के बीच हां-ना की शुरुआत यहीं से हुई थी। जनता दल यूनाईटेड (JDU) और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस तारीख में असल अगुआ थे। 12 जून को विपक्षी जदयू ने देशभर के भाजपा विरोधी दलों को पटना में बुलाया था। एक-एक कर सभी के आने की सहमति मिल गई। कांग्रेस से भी पहले बात हो चुकी थी। लेकिन, ऐन वक्त पर पता चला कि कांग्रेस के नंबर वन नेता राहुल गांधी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे इस बैठक में नहीं आ रहे। यह नीतीश-निश्चय के बिल्कुल उलट था। नीतीश ने प्रतिक्रिया दी कि “बैठक में जब वह नहीं आएंगे तो मतलब नहीं।”

23 जून को ‘दूल्हा’ की बात से कहानी पलटी

12 जून की बैठक के लिए कांग्रेस की ओर से जब हरी झंडी नहीं दिखी तो इस मैदान में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव कूदे। उनके कूदने से कांग्रेस का आना आसान हो गया। लेकिन, बात यहीं नहीं रुकी। 22-23 जून को बहुत कुछ हो गया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कई नेताओं ने लालू के प्रति ज्यादा आस्था दिखाई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आतिथ्य में कमजोर नहीं पड़े। सभी से मिलने गए। फिर 23 जून को मीटिंग हुई तो बाहर सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि यह बैठक सफल रही तो नीतीश को संयोजक बनाया जाएगा। बैठक से दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और पंजाब के सीएम भगवंत मान नाराज होकर निकले। फिर मीडिया के सामने जो नेता आए, उनमें से कई ने नीतीश कुमार के बेहतर संयोजकत्व या संयोजन में बैठक होने की बात तो कही। लेकिन, ऑन रिकॉर्ड उनके लिए भविष्य की कोई भूमिका नहीं तय हुई। और तो और, लालू ने राहुल गांधी के दूल्हा बनने की बात कह दी। भाजपा पहले से कह रही थी कि बाराती जुट रहा, दूल्हा तय नहीं। संभव है कि लालू ने शादी को लेकर यह कहा हो, लेकिन माना गया कि विपक्षी एकता के ‘दूल्हे’ को लेकर उन्होंने संकेत दिया।

18 जुलाई को बेंगलुरु में टूट गई सब्र की हद

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा-विरोधी दलों को पहली बार इस तरह एकजुट किया, लेकिन वही जब विपक्षी दलों की इस बैठक के लिए बेंगलुरु पहुंचे तो कांग्रेस शासित राज्य में अपने खिलाफ पोस्टरबाजी देखते रह गए। कांग्रेस ने इन पोस्टरों को हटवा दिया और इसे भाजपाई साजिश तक कहा, लेकिन यह बेहद असहज करने वाली तस्वीरें थीं। असहजता दिख भी गई। इस बैठक के बाद मीडिया से बात करनी थी, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार लौट आए। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव भी मुख्यमंत्री के साथ गए थे। नीतीश लौटे और चुप्पी मारकर निकल गए। चौंकाते हुए लालू ने भी चुप्पी साध ली। फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जदयू ने विपक्षी एकता का ‘सूत्रधार’ कहा और राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कहा- “सूत्रधार नाराज नहीं होते।” इसके बाद मुख्यमंत्री ने भी राजगीर मलमास मेला के मंच और पटना एयरपोर्ट पर कहा कि वह नाराज नहीं हैं। लेकिन, हकीकत यह भी है कि इस बैठक में विपक्षी दलों की एकता का नाम I.N.D.I.A. तो तय हो गया, लेकिन संयोजक के रूप में उम्मीद के उलट नाम की घोषणा नहीं हुई थी।

मुंबई में रोड़ा हटाकर ‘हां’ कराना जरूरी

चाणक्य इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष सुनील कुमार सिन्हा इस पूरे घटनाक्रम की चर्चा करते हुए समाधान की बात करते हैं- “एक मयान में दो तलवार- मानें या नहीं, लेकिन ऐसा हो जरूर रहा है। कभी एक-दूसरे के साथी, कभी भीषण विरोधी और फिर साथी हैं लालू और नीतीश। भाजपा-विरोधी पूरी शक्तियों को जुटाने में नीतीश कुमार की भूमिका सबसे प्रमुख और अग्रणी रही। फिर इसमें लालू कूदे और माइलेज लेते गए। उन्होंने राहुल गांधी के ‘दूल्हा’ बनने के इंतजार की बात कही और कुछ ही दिनों के बाद राहुल गांधी की सांसदी वापसी होते ही विपक्षी एकता के संयोजक के रूप में नीतीश कुमार के नाम की चर्चा गायब होने लगी। इसे महत्वाकांक्षा या आकांक्षा नहीं मानेंगे, तो भी उम्मीद तो यही थी कि नीतीश को उनकी मेहनत के हिसाब से फल मिलेगा।” तो क्या, लालू रोड़ा हैं या राहुल गांधी? इस सवाल का जवाब कई वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों ने सीधे नाम लेकर नहीं दिया। कहा- “यह नीतीश कुमार की मेहनत का फल है, इन दोनों में से किसी को देना शायद उचित नहीं होगा। इससे गलत संदेश भी जाएगा। इसलिए भी नीतीश को अहम जिम्मेदारी देनी ही चाहिए।” क्या नीतीश मानेंगे? इस सवाल का जवाब हर जगह से ‘हां’ के रूप में मिला और विश्लेषकों के अनुसार नीतीश को इसके लिए मनाना मुश्किल नहीं।

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