Subhadra Devi Bihar : शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में सुभद्रा देवी पर आया प्रश्न; जानिए क्यों चर्चा में हैं वह

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से सम्मान ग्रहण करते हुए सुभद्रा देवी
– फोटो : अमर उजाला

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बिहार लोक सेवा आयोग ने सदी में पहली बार शिक्षकों की सरकारी और स्थायी नौकरी के लिए परीक्षा ली तो सुभद्रा देवी के बारे में सवाल पूछा गया। ज्यादातर परीक्षार्थी चौंक गए। बिहार के जिन लोगों ने पद्मश्री पुरस्कार की घोषणा पर इस साल जनवरी में उनका नाम सुना था, वह भी उनकी प्रसिद्धि की वजह के सवाल पर उलझ गए। जब पद्मश्री पुरस्कार में उनका नाम आया था, तब भी लोग चौंके थे। वजह यह कि सुभद्रा देवी एक ऐसी शख्सियत का नाम है, जिन्होंने बिहार में एक कला को बगैर शोरशराबे के पहचान दी और उम्र के एक पड़ाव पर आकर इत्मिनान से दिल्ली में रहने चली गईं। ‘अमर उजाला’ से बातचीत में उनके परिवार वालों ने बीपीएससी के प्रश्न पर खुशी जताते हुए कहा कि बिहार के गौरव को आयोग ने याद किया तो अच्छा लगा।

कौन हैं सुभद्रा देवी, क्या है उनकी कला पेपरमेसी

दरअसल, गांव-घर में कई बार जो काम आप बचपन में खेलने के लिए करें और आगे चलकर उसे ही एक अलग पहचान देकर देशभर में नाम कमा लें तो उसका बेहद सटीक उदाहरण हैं सुभद्रा देवी। सुभद्रा देवी को पेपरमेसी कला के लिए इस वर्ष पद्मश्री मिला। पेपरमेसी मूल रूप से जम्मू-कश्मीर की कला के रूप में जाना जाता है, लेकिन सुभद्रा देवी बचपन में इस कला से खेला करती थीं। सवाल उठता है कि पेपरमेसी होता क्या है? दरअसल, पानी में कागज को गलाकर उसे लुगदी के बनाने के बाद नीना थोथा और गोंद मिलाकर उससे तैयार पेस्ट से कलाकृतियां बनाने की कला पेपरमेसी है। पेपरमेसी से मुखौटे, खिलौने, मूर्तियां, की-रिंग, पशु-पक्षी, ज्वेलरी और मॉडर्न आर्ट की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। इसके अलावा अब प्लेट, कटोरी, ट्रे समेत काम का आइटम भी पेपरमेसी से बनता है। पेपरमेसी कलाकृतियों को आकर्षक रूप के कारण लोग महंगे दामों पर भी खरीदने को तैयार रहते हैं। 

बोलती-सुनती कम हैं, मगर कलाकारी जिंदा है

सुभद्रा देवी को वर्ष 1980 में राज्य पुरस्कार और 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद उन्हें लोग भूलने लगे, लेकिन पद्म पुरस्कारों में जब जनवरी में उनका नाम आया तो पता चला कि वह दिल्ली में रह रही हैं। सुभद्रा देवी जन्म से दरभंगा के मनीगाछी की हैं। शादी के बाद मधुबनी के सलेमपुर पहुंचने पर भी वह इस कला से जुड़ी रहीं। करीब 90 साल की सुभद्रा देवी दिल्ली में बेटे-पतोहू के पास अब रह रही हैं। घर से इतनी दूरी के बावजूद वह पेपरमेसी से दूर नहीं गई हैं। वहां से भी इस कला के विस्तार की हर संभावना देखती हैं। बड़े मंचों तक इसे पहुंचाने की जद्दोजहद में रहती हैं। बोलती-सुनती कम हैं, लेकिन मौका मिलने पर हाथ से कलाकारी दिखा देती हैं।

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