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वर्ष 1935 में टिहरी के गुलजारी लाल असवाल पहला सार्वजनिक रेडियो खरीदने के लिए चार दिन पैदल चलकर मसूरी में बनवारीलाल के पास पहुंचे थे। यहां से रेडियो कंधे पर उठाकर टिहरी ले गए थे। टिहरी में पहला सार्वजनिक रेडियो पहुंचने पर जश्न मना। ‘एक थी टिहरी’ पुस्तक में इस वृतांत का विस्तार से उल्लेख है। इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी बताते हैं कि बनवारी लाल ने पहाड़ों पर रेडियो को एक सशक्त जन माध्यम के रूप में स्थापित किया।
बनवारी लाल 1930 के दशक में घनानंद स्कूल में ड्राइंग टीचर के रूप में नियुक्त हुए। मसूरी में उनकी ख्याति एक कवि, कलाकार, संपादक, नाटककार, अभिनेता के रूप में थी। वर्ष 1930 के आसपास बनवारी लाल ने एमर्सन रेडियो की एजेंसी ली। वह दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में भी घोड़े पर लादकर रेडियो की सप्लाई करते थे। टिहरी के प्रख्यात सर्वोदयी नेता स्व. प्रताप शिखर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बनवारी लाल ने तीन दिन पैदल चलकर उनके खाड़ी गजा स्थित गांव में रेडियो पहुंचाया था।
हवा की चरखी से चलता था रेडियो
पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी बताते हैं कि उन दिनों रेडियो चलाना आसान नहीं था। एमर्सन कंपनी के रेडियो चलाने के लिए एक हवा की चरखी छत पर लगती थी। हवा चलने से बैटरी चार्ज होती थी और रेडियो चल पड़ता था। ऐसी चरखियों को देखकर राह चलते लोग हैरान हो जाते थे। रेडियो सुनने के लिए कतारें लगती थीं।
गोरखा समाज को नई दिशा दे रहा घाम छाया
पहाड़ों पर रेडियो की पहुंच आजादी से पहले ही हो गई थी। अब रेडियो में नए प्रयोग यहां की संस्कृति को संरक्षित कर रहे हैं। घाम-छाया 90.0 कम्युनिटी एवं डिजिटल रेडियो की शुरुआत भी ऐसा ही प्रयोग है। इस पर गोरखा इतिहास, भाषा एवं संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम ब्राडकास्ट होते हैं। वहीं, मुक्तेश्वर के सूपी गांव से संचालित कम्युनिटी रेडियो स्टेशन भी अपनी संस्कृति को जीवित रखने के लिए प्रयासरत है। यह रेडियो स्टेशन कुमाऊंंनी को नई दिशा दे रहा है। सभी कार्यक्रम कुमाऊंंनी में प्रसारित किए जाते हैं।
यहीं से होती थी रेडियो की सप्लाई
शहर कांग्रेस अध्यक्ष गौरव अग्रवाल बताते हैं कि बनवारी लाल उनके रिश्तेदार थे। वर्तमान में उनके होटल में ही उनकी रोडियो की एजेंसी चलती थी। यहीं से रेडियो की सप्लाई होती थी।
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